मंदी: साल बाद भी उबर न पाई दुनिया
अमरीका से ठीक एक साल पहले शुरु हुए उस वित्तीय भूचाल पर नज़र डाले तो विश्व के अगस्त 2007 से ही नकदी के संकट में फंसते चले जाने के सबूत थे. लेकिन इसने सही मायने में पिछले साल सितंबर में विकराल रूप लिया.
शुरुआत हुई सात सितंबर को होम-लोन का कारोबार करने वाले अमरीकी वित्तीय संस्थानों फ़ेनी मे और फ़्रेडी मैक को सरकारी नियंत्रण में लिए जाने से, और पूरे सप्ताह लेहमन ब्रदर्स के भविष्य को लेकर आशंकाएँ बनी रहीं. अंतत: 14 सितंबर की देर रात लेहमन ब्रदर्स दिवालिया घोषित होने वाली सबसे बड़ी अमरीकी कंपनी बन गई. लेहमन ब्रदर्स के पतन के बाद वैश्विक वित्त व्यवस्था ने एक अनिश्चित राह पकड़ ली, और साल भर बाद भी संकट के बादल नहीं छंटे हैं.
फ़ेडेरल नेशनल मॉरगेज एसोसिएशन यानी फ़ेनी मे और फ़ेडेरल होम लोन मॉरगेज कॉरपोरेशन यानि फ़्रेडी मैक सरकार समर्थित वित्तीय संस्थान है. जिस समय इन पर संकट आया अमरीका के होम-लोन बाज़ार का क़रीब आधा हिस्सा इन दोनों के पास था.
अमरीका में रह रहे अर्थशास्त्री और विश्व बैंक के पूर्व उपाध्यक्ष शाहिद जावेद बर्की ने इनके कामकाज़ के तरीके के बारे में बताया, "ये दोनों संस्थान कॉमर्शियल बैंकों द्वारा वितरित होम-लोन को ख़रीदते हैं. उनको फिर नया रूप देकर बीमा कंपनियों या दीर्घावधि के निवेश में इच्छुक अन्य वित्तीय संस्थानों को आगे बेचते हैं. इस तरह से ये कॉमर्शियल बैंकों के लिए सेंकेंडरी मार्केट उपलब्ध कराते हैं. फ़ेनी मे छोटे होम-लोन को ख़रीद कर उन्हें मिलाकर बड़े निवेश उत्पाद के रूप में बेचता है, जबकि फ़्रेडी मैक बड़े ऋण को लेकर ऐसा ही काम करता है."
सरकारी सहायता
ऐसे में अमरीकी सरकार और अमरीकी केंद्रीय बैंक तुरंत हरकत में आए. तत्कालीन वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन ने सरकारी खज़ाने से 200 अरब डॉलर की नक़दी दे कर फ़ेनी मे और फ़्रेडी मैक को दिवालिया होने से बचाने की सरकार की मजबूरी के बारे में कहा था, "ये संकट सीधे-सीधे आम अमरीकी परिवार पर बुरा असर डालेगा. परिवार के बजट, घरों की क़ीमत, बच्चों की पढ़ाई और सेवानिवृति के बाद के दिनों के लिए बचा कर रखे गए धन...ये सब प्रभावित होंगे. यदि इन दो बैंकों को बचाया नहीं गया तो आम अमरीकी परिवारों और व्यवसायों को रिण मिलना मुश्किल हो जाएगा. और अंतत: इससे अमरीका का आर्थिक विकास प्रभावित होगा, बेरोज़गारी बढ़ेगी."
दो बड़े बैंकों को सरकारी जीवन-धारा दिए जाने पर अमरीकी बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने तो राहत की सांस ली ही, चीन और जापान जैसे देशों ने भी इस त्वरित कार्रवाई के लिए अमरीकी सरकार की तारीफ़ की थी. दरअसल फ़ेनी मे और फ़्रेडी मैक को सरकारी समर्थन मिले होने के कारण इन देशों ने भी इसमें बड़ा निवेश कर रखा था.
वित्त बाज़ार में भूचाल
लेकिन फ़्रेडी मैक और फ़ेनी मे को बचाए जाने के बाद भी वित्तीय संकट की स्थिति और भयानक होती जा रही थी. अमरीका के बड़े निवेश बैंकों में से एक लेहमन ब्रदर्स के पाँव डगमगा रहे थे. लेकिन पूर्व में बेअर स्टर्न्स बैंक को सहारा देने वाली अमरीकी सरकार ने लीमैन ब्रदर्स को सहारा देने से इनकार कर दिया.
उसी हफ़्ते मीडिया में सामने आई जानकारी के अनुसार अमरीका सरकार लेहमन ब्रदर्स को बचाना तो चाहती थी, लेकिन पूरे मन से उसने इसकी कोशिश नहीं की. आख़िर पूँजीवाद के एक प्रतीक को क्यों नहीं बचाया जा सका? ब्रिटेन के क्रेनफ़ील्ड स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर सुनील पोशाकवाले ने इस बारे में बताया, "जब लेहमन ब्रदर्स पर संकट आया तो हेनरी पॉल्सन को उम्मीद थी कि पिछली बार बेअर स्टर्न्स को जैसे अमरीकी बैंकों की मदद से बचा लिया गया था, उसी तरह इस निवेश बैंक को भी बचा लिया जाएगा. लेकिन जब उन्हें अहसास हुआ कि ऐसा संभव नहीं है, तो उन्होंने ब्रिटेन के बार्कलेज़ बैंक से संपर्क किया."
"समस्या ये थी कि बार्कलेज़ संपूर्ण लेहमन ब्रदर्स में नहीं बल्कि उसकी अच्छी परिसंपत्तियों मात्र में दिलचस्पी ले रहा था, जबकि पॉल्सन इसके ख़िलाफ़ थे. इसी तरह ब्रिटेन की सरकार और वित्तीय नियामक संस्थाओं की माँग थी कि लीमैन ब्रदर्स का बार्कलेज़ द्वारा अधिग्रहण की बात आगे बढ़े इससे पहले अमरीका सरकार पूरे सौदे को किसी न किसी तरह की गारंटी दे. दोनों ही बातें संभव नहीं हो पाई, और लीमैन ब्रदर्स का दिवाला निकल गया."
निवेश बैंकों की कार्य प्रणाली"कई सालों से जारी कम ब्याज़ दर के वातावरण में प्रचूर मात्रा में ऋण उपलब्ध हो गया. जो कर्ज़ चुका पाने की स्थिति में किसी तरह से नहीं थे उन्हें मनचाही मात्रा में ऋण मिल रहा था. हाउसिंग सेक्टर में क़ीमतों में बेतहाशा तेज़ी आती जा रही थी. निवेश बैंक भी इनमें डूबते जा रहे थे. दोष नियामक संस्थाओं का भी था. या तो उनके पास जटिल निवेश उपक्रमों को समझने वाले लोग नहीं थे, या उनके पास इन सबके लिए समय नहीं था."
भारत पर ज़्यादा बुरा असर नहीं
लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने से पूरी दुनिया के वित्तीय बाज़ार हिल गए. शेयर सूचकांक गोते लगा रहे थे. कई शेयर बाज़ारों में तो ऐहतियातन कारोबार बंद कर दिया गया. भारत का सेन्सेक्स सूचकांक भी 3.35 प्रतिशत नीचे बंद हुआ. बैंकिंग समेत तमाम सेक्टर के शेयर ज़मीन छूते नज़र आए.
उन्होंने कहा, "लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने के बाद दुनिया के कई देशों में बैंकों के सरकारी शरण में जाने को देखते हुए इतना ज़रूर हुआ कि स्टेट बैंक और आईसीआईसीआई बैंक जैसे भारतीय बैंकों ने अपनी अंतरराष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को अभी ठंडे बस्ते में डालना ही उचित समझा है. अब वे बेलगाम विस्तार के बारे में बिल्कुल नहीं सोचेंगे. रिज़र्व ने कुछ नए ऐहतियाती निर्देश जारी किए. ये सब भारत के बैंकिंग सेक्टर के लिए अच्छी बात ही है."
पिछले सप्ताहांत लंदन में ही जी-20 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट के एक साल पूरे होने पर स्थिति की समीक्षा की गई. सहमति बनी कि वित्तीय संकट से निपटने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की नीति को अभी जारी रखा जाए. मतलब बुरे क़र्ज़ को सरकारी खाते में डालने, बैंकों को धराशाई होने से बचाने और भारी मात्रा में करेंसी छापने जैसे प्रयासों को अभी चालू रखा जाए.
यानी वित्तीय संकट के लगातार कम होते जाने और अर्थव्यवस्था के पटरी पर वापस लौटने के कुछ संकेत दिख रहे हैं, लेकिन मामला पूरी तरह संभले, इसके लिए अभी लंबा इंतजार करना पड़ सकता है.
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